Tuesday, October 28, 2008

मुझको यक़ीं है

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं 
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं 

इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया 
इक वो दिन दिन जब पेड़ की शाख़े बोझ हमारा सहती थीं

इक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का 
इक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं 

इक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं 
इक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं

इक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं 
इक वो दिन जब शाख़ों की भी पलकें बोझल रहती थीं 

इक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं 
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं 

इक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है 
इक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं 

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