Friday, October 31, 2008

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है 
जो चाहा था दुनिया में कम होता है

ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम 
हमसे पूछो कैसा आलम होता है 

ग़ैरों को कब फ़ुरसत है दुख देने की 
जब होता है कोई हम-दम होता है 

ज़ख़्म तो हम ने इन आँखों से देखे हैं 
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है 

ज़हन की शाख़ों पर अशार आ जाते हैं 
जब तेरी यादों का मौसम होता है 

2 comments:

manvinder bhimber said...

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है
जो चाहा था दुनिया में कम होता है
ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम
हमसे पूछो कैसा आलम होता है
bahtreen prstuti

अनुपम अग्रवाल said...

मुझे याद आया कि ;
गम पीते पीते गम पीने की आदत सी हो गयी है
अब अगर गम नहीं मिलता तो ग़मगीन हो जाता हूँ