Saturday, November 8, 2008

किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से

कंप्युटर युग है .हाथ से किताब ,डायरी -पेन का रिश्ता एक दास्तान एक किस्सा बनता जा रहा है धीरे धीरे ..कभी कुछ कोंधा जहन में तो फट से कहीं लिख लिया करते थे ..और अब लगता है कि की -बोर्ड पर लिखो प्रिंट आउट ले लो .इ बुक खोलो और पढ़ लो. ..किताबे सिर्फ़ इल्म का जरिए नही मुलाकात का बहाना भी थी ..दिल का सकून और सूखे हुए गुलाब के फूलो की इश्क की दास्तान भी ... इसी बात को गुलजार जी ने देखिये कितनी खूबसूरती से अपनी इक नज्म में ढाला है .किताब से जुड़ी हर बात उन्होंने इस नज्म में कही है ...

किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है 
महीनों अब मुलाकाते नही होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी अब अक्सर
गुजर जाती है कंप्युटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबे ....
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती है ..

जो कदरें वो सुनाती थी
की जिन के सैल कभी मरते थे
वो कदरें अब नज़र आती नही घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी
वह सारे उधडे उधडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नही उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिटटी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी है
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला 

जुबान पर जायका आता था जो सफहे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तह बा तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था ,कट गया है
कभी सीने पर रख कर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे ,छुते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने ,गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!

Wednesday, November 5, 2008

दर्द अपनाता है पराए कौन

दर्द अपनाता है पराए कौन 

कौन सुनता है और सुनाए कौन 

कौन दोहराए वो पुरानी बात 
ग़म अभी सोया है जगाए कौन 

वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं 
कौन दुख झेले आज़माए कौन 

अब सुकूँ है तो भूलने में है 
लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन 

Sunday, November 2, 2008

अब खुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला

अब खुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला


हर बेचेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला


उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला


दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला


इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला 

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार 
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार 
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार 
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार


लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव 
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव 
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत 
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत 
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम 
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम


सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर 
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर 
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप 
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप


सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास 
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास 
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान 
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है 
दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है


जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है 
हर जीवन जीवन जीने का समझौता है 
अब तक जो होता आया है वो ही होना है


रात अँधेरी भोर सुहानी यही ज़माना है 
हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है 
आती साँस को पाना जाती साँस को खोना है

हम इन्तेज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक


हम इन्तेज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक

ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए


यह इन्तेज़ार भी एक इम्तेहान होता है

इसी से इश्क का शोला जवान होता है

यह इन्तेज़ार सलामत हो और तू आए


बिछाए शौक़ के सजदे वफ़ा की राहों में

खड़े हैं दीद की हसरत लिए निगाहों में

कुबूल दिल की इबादत हो और तू आए


वो ख़ुशनसीब हो जिसको तू इन्तेख़ाब करे

ख़ुदा हमारी मौहब्बत को कामयाब करे

जवाँ सितार-ए-क़िस्मत हो और तू आए


ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए

Saturday, November 1, 2008

ठन गई! मौत से ठन गई!

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।