Sunday, December 28, 2008

नयी-नयी पोशाक...

नयी-नयी पोशाक बदलकर, मौसम आते-जाते हैं,
फूल कहॉ जाते हैं जब भी जाते हैं लौट आते हैं।

शायद कुछ दिन और लगेंगे, ज़ख़्मे-दिल के भरने में,
जो अक्सर याद आते थे वो कभी-कभी याद आते हैं।

चलती-फिरती धूप-छॉव से, चहरा बाद में बनता है,
पहले-पहले सभी ख़यालों से तस्वीर बनाते हैं।

आंखों देखी कहने वाले, पहले भी कम-कम ही थे,
अब तो सब ही सुनी-सुनाई बातों को दोहराते हैं ।

इस धरती पर आकर सबका, अपना कुछ खो जाता है,
कुछ रोते हैं, कुछ इस ग़म से अपनी ग़ज़ल सजाते हैं।


Monday, December 22, 2008

पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये

पत्थर के ख़ुदा वहाँ भी पाये 
हम चाँद से आज लौट आये 

दीवारें तो हर तरफ़ खड़ी हैं 
क्या हो गया मेहरबाँ साये 

जंगल की हवायें आ रही हैं 
काग़ज़ का ये शहर उड़ न जाये 

लैला ने नया जनम लिया है 
है कै़स कोई जो दिल लगाये 

है आज ज़मीन का गुसल-ए-सहत 
जिस दिल में हो जितना ख़ून लाये 

Thursday, December 4, 2008

पीठ पीछे से हुए वार से डर लगता है

पीठ पीछे से हुए वार से डर लगता है

मुझको हर दोस्त से,हर यार से डर लगता है


चाहे पत्नी करे या प्रेमिका अथवा गणिका,

प्यार की शैली में, व्यापार से डर लगता है


संविधानों की भी रक्षा नहीं कर पाई जो

मूक दर्शक बनी सरकार से डर लगता है


इस महानगरी में करना पड़े कब और कहाँ

व्यस्तताओं भरे अभिसार से डर लगता है


कोई तलवार कभी काट न पाई जिसको

वक्त की नदिया की उस धार से डर लगता है


एक झटके में चुका दे जो समूची कीमत

रूप को ऐसे खरीदार से डर लगता है


हम चमत्कारों में विश्वास तो करते हैं, मगर

हम गरीबों को चमत्कार से डर लगता है


Wednesday, December 3, 2008

दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली

भूल शायद बहुत बड़ी कर ली 
दिल ने दुनिया से दोस्ती कर ली 

तुम मुहब्बत को खेल कहते हो 
हम ने बर्बाद ज़िन्दगी कर ली 

उस ने देखा बड़ी इनायत से 
आँखों आँखों में बात भी कर ली 

आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है 
बेवफ़ाई कभी कभी कर ली 

हम नहीं जानते चिराग़ों ने 
क्यों अंधेरों से दोस्ती कर ली 

धड़कनें दफ़्न हो गई होंगी 
दिल में दीवार क्यों खड़ी कर ली


सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है

सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है 
ये ज़मी दूर तक हमारी है 

मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है 

हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है

मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद 
जिस इमारत पे संगबारी है 

नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है 

फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल 
वैसे मज़मून इख्तियारी है 

रेत के घर तो बेह गए नज़मी 
बारिशों का खुलूस जारी है


पत्थर के जिगर वालों ग़म में वो रवानी है

पत्थर के जिगर वालों ग़म में वो रवानी है 
ख़ुद राह बना लेगा बहता हुआ पानी है 

फूलों में ग़ज़ल रखना ये रात की रानी है 
इस में तेरी ज़ुल्फ़ों की बे-रब्त कहानी है 

एक ज़हन-ए-परेशाँ में वो फूल सा चेहरा है 
पत्थर की हिफ़ाज़त में शीशे की जवानी है 

क्यों चांदनी रातों में दरिया पे नहाते हो 
सोये हुए पानी में क्या आग लगानी है 

इस हौसला-ए-दिल पर हम ने भी कफ़न पहना 
हँस कर कोई पूछेगा क्या जान गवानी है 

रोने का असर दिल पर रह रह के बदलता है 
आँसू कभी शीशा है आँसू कभी पानी है 

ये शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना 
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है 

Saturday, November 8, 2008

किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से

कंप्युटर युग है .हाथ से किताब ,डायरी -पेन का रिश्ता एक दास्तान एक किस्सा बनता जा रहा है धीरे धीरे ..कभी कुछ कोंधा जहन में तो फट से कहीं लिख लिया करते थे ..और अब लगता है कि की -बोर्ड पर लिखो प्रिंट आउट ले लो .इ बुक खोलो और पढ़ लो. ..किताबे सिर्फ़ इल्म का जरिए नही मुलाकात का बहाना भी थी ..दिल का सकून और सूखे हुए गुलाब के फूलो की इश्क की दास्तान भी ... इसी बात को गुलजार जी ने देखिये कितनी खूबसूरती से अपनी इक नज्म में ढाला है .किताब से जुड़ी हर बात उन्होंने इस नज्म में कही है ...

किताबे झांकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है 
महीनों अब मुलाकाते नही होती
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थी अब अक्सर
गुजर जाती है कंप्युटर के परदों पर
बड़ी बेचैन रहती है किताबे ....
इन्हे अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती है ..

जो कदरें वो सुनाती थी
की जिन के सैल कभी मरते थे
वो कदरें अब नज़र आती नही घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थी
वह सारे उधडे उधडे हैं
कोई सफहा पलटता हूँ तो एक सिसकी निकलती है
कई लफ्जों के माने गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नही उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिटटी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी है
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला 

जुबान पर जायका आता था जो सफहे पलटने का
अब उंगली क्लिक करने से बस इक झपकी गुजरती है
बहुत कुछ तह बा तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था ,कट गया है
कभी सीने पर रख कर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम सजदे में पढ़ा करते थे ,छुते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मँगाने ,गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा
वो शायद अब नही होंगे !!

Wednesday, November 5, 2008

दर्द अपनाता है पराए कौन

दर्द अपनाता है पराए कौन 

कौन सुनता है और सुनाए कौन 

कौन दोहराए वो पुरानी बात 
ग़म अभी सोया है जगाए कौन 

वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं 
कौन दुख झेले आज़माए कौन 

अब सुकूँ है तो भूलने में है 
लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन 

Sunday, November 2, 2008

अब खुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला

अब खुशी है न कोई दर्द रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला


हर बेचेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला


उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला


दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला


इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला 

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार 
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार 
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार 
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार


लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव 
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव 
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत 
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत 
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम 
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम


सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर 
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर 
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप 
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप


सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास 
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास 
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान 
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है

जीवन क्या है चलता फिरता एक खिलौना है 
दो आँखों में एक से हँसना एक से रोना है


जो जी चाहे वो मिल जाये कब ऐसा होता है 
हर जीवन जीवन जीने का समझौता है 
अब तक जो होता आया है वो ही होना है


रात अँधेरी भोर सुहानी यही ज़माना है 
हर चादर में दुख का ताना सुख का बाना है 
आती साँस को पाना जाती साँस को खोना है

हम इन्तेज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक


हम इन्तेज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक

ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए


यह इन्तेज़ार भी एक इम्तेहान होता है

इसी से इश्क का शोला जवान होता है

यह इन्तेज़ार सलामत हो और तू आए


बिछाए शौक़ के सजदे वफ़ा की राहों में

खड़े हैं दीद की हसरत लिए निगाहों में

कुबूल दिल की इबादत हो और तू आए


वो ख़ुशनसीब हो जिसको तू इन्तेख़ाब करे

ख़ुदा हमारी मौहब्बत को कामयाब करे

जवाँ सितार-ए-क़िस्मत हो और तू आए


ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए

Saturday, November 1, 2008

ठन गई! मौत से ठन गई!

ठन गई!
मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,

रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर, ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।

प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।

आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।

पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, तेवरी तन गई।

मौत से ठन गई।

Friday, October 31, 2008

कभी आंसू कभी खुशी बेची

कभी आंसू कभी खुशी बेची,
हम गरीबो ने बेकसी बेची,

चाँद साँसे खरीदने के लिए,
रोज़ थोडी सी ज़िंदगी बेची,

जब रुलाने लगे मुझे साये,
मैंने उकता के रौशनी बेची,

एक हम थे के बिक गए ख़ुद ही,
वरना दुनिया ने दोस्ती बेची,

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है 
जो चाहा था दुनिया में कम होता है

ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम 
हमसे पूछो कैसा आलम होता है 

ग़ैरों को कब फ़ुरसत है दुख देने की 
जब होता है कोई हम-दम होता है 

ज़ख़्म तो हम ने इन आँखों से देखे हैं 
लोगों से सुनते हैं मरहम होता है 

ज़हन की शाख़ों पर अशार आ जाते हैं 
जब तेरी यादों का मौसम होता है 

हम तो बचपन में भी अकेले थे

हम तो बचपन में भी अकेले थे 
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे 

एक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के 
एक तरफ़ आँसूओं के रेले थे 

थीं सजी हसरतें दूकानों पर 
ज़िन्दगी के अजीब मेले थे 

आज ज़ेहन-ओ-दिल भूखों मरते हैं 
उन दिनों फ़ाके भी हमने झेले थे 

ख़ुदकुशी क्या ग़मों का हल बनती 
मौत के अपने भी सौ झमेले थे 

क्यूँ ज़िन्दगी की राह में

क्यूँ ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए 
इतने हुए करीब कि हम दूर हो गए 

ऐसा नहीं कि हमको कोई भी खुशी नहीं 
लेकिन ये ज़िन्दगी तो कोई ज़िन्दगी नहीं 
क्यों इसके फ़ैसले हमें मंज़ूर हो गए 

पाया तुम्हें तो हमको लगा तुमको खो दिया 
हम दिल पे रोए और ये दिल हम पे रो दिया 
पलकों से ख़्वाब क्यों गिरे क्यों चूर हो गए 

Tuesday, October 28, 2008

हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी

हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी
क़दम रखा कि मंज़िल रास्ता थी

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी

मोहब्बत मर गई मुझको भी ग़म है
मेरे अच्छे दिनों की आशना थी

जिसे छू लूँ मैं वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी

मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी


शफ़ा=आराम, रोग से मुक्ति

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते 

वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन 
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते 

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा 
जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते 

तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वरना
हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो 
ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते

मौत तू एक कविता है,

मौत तू एक कविता है,
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ 
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

मुझको यक़ीं है

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं 
जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं 

इक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे रिश्ता तोड़ लिया 
इक वो दिन दिन जब पेड़ की शाख़े बोझ हमारा सहती थीं

इक ये दिन जब लाखों ग़म और काल पड़ा है आँसू का 
इक वो दिन जब एक ज़रा सी बात पे नदियाँ बहती थीं 

इक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी रूठी लगती हैं 
इक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं

इक ये दिन जब जागी रातें दीवारों को तकती हैं 
इक वो दिन जब शाख़ों की भी पलकें बोझल रहती थीं 

इक ये दिन जब ज़हन में सारी अय्यारी की बातें हैं 
इक वो दिन जब दिल में सारी भोली बातें रहती थीं 

इक ये घर जिस घर में मेरा साज़-ओ-सामाँ रहता है 
इक वो घर जिसमें मेरी बूढ़ी नानी रहती थीं 

तमन्‍ना फिर मचल जाए

तमन्‍ना फिर मचल जाए

अगर तुम मिलने आ जाओ।

यह मौसम ही बदल जाए

अगर तुम मिलने आ जाओ।

मुझे गम है कि मैने जिन्‍दगी में कुछ नहीं पाया

ये गम दिल से निकल जाए

अगर तुम मिलने आ जाओ।

नहीं मिलते हो मुझसे तुम तो सब हमदर्द हैं मेरे

ज़माना मुझसे जल जाए

अगर तुम मिलने आ जाओ।

ये दुनिया भर के झगड़े घर के किस्‍से काम की बातें

बला हर एक टल जाए

अगर तुम मिलने आ जाओ।

वो जो शायर था चुप सा रहता था

वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था 
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

Saturday, October 25, 2008

रौशनी देते रहना

On the eve of Deepwali I am posting my poem रौशनी देते रहना,
which I have written for myself.

अपनी  राह  में फूल हो न हो फिर भी
दोस्तों की राहो के कांटे हटाते रहना

जिन्दगी को  ख्वाबों से सजाते रहना  
मुश्किलें आए तो भी सदा मुस्कराते रहना

अपना हाल-ऐ-इलम ना होने देना 
हालात को इस कदर छुपाते रखना 

ख्वाबों के सारे जनाजे डूब भी जायें
मगर ताबूतों को हमेशा संभाले रखना  

जब कभी तन्हाई आ घेरे तुझको  
अपने दिल को गेरों संग बतलाते रहना

गम उठाकर भी तू खुशिया देते रहना  
बस हर हाल में रौशनी देते रहना 

क्या बुरा है इस ज़माने में ऐ 'दीप'
ख़ुद जलकर भी रौशनी देते रहना

Sunday, July 13, 2008

Missing MNIT

...missing my college these days
...ek tanha dil aur ye tanhai ab sahi nahi jaati
...sochta hu magar jaau to jaau kaha
...bas main hu aur meri tanhaai hai yaha


किस को आती है मसीहाई किसे आवाज़ दूं,
बोल ऐ ख़ूंख़ार तनहाई किसे आवाज़ दूं,

उफ़ ख़ामोशी की ये आहें दिल को बरमाती हुईं,
उफ़ ये सन्नाटे की शहनाई किसे आवाज़ दूं,

Friends Forever

.....kuch sochne to yaaro ke naam kya likhu?

दोस्ती वो एहसास है जो मिटता नहीं
दोस्ती वो पर्वत है जो झुकता नहीं
इसकी कीमत क्या पूछो हमसे
ये वो अनमोल मोती है जो बिकता नहीं

सच्ची है दोस्ती आजमा के देखो
करके यकीन मुझपे मेरे पास आके देखो
बदलता नहीं कभी सोना अपना रंग कभी
चाहे जितनी बार आग में जला कर के देखो