Tuesday, October 28, 2008

वो जो शायर था चुप सा रहता था

वो जो शायर था चुप सा रहता था
बहकी-बहकी सी बातें करता था
आँखें कानों पे रख के सुनता था 
गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!
जमा करता था चाँद के साए
और गीली सी नूर की बूँदें
रूखे-रूखे से रात के पत्ते
ओक में भर के खरखराता था
वक़्त के इस घनेरे जंगल में
कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था
हाँ वही, वो अजीब सा शायर
रात को उठ के कोहनियों के बल
चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो
लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

2 comments:

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

बार-बार तुम आ रहे, लेकर बासी भात.
फ़िर पूछो क्या आई थी, हमे तुम्हारी याद.
हमें तुम्हारी याद, भला कैसे आयेगी
फ़ोटो भी नकली भेजी,वो शरमायेगी !
कह साधक कवि,मत लिखना आगे से यार.
लेकर बासी भात आ रहे, तुम बारम्बार.

Kuldeep said...

तुमने दिल की बात कह दी आज ये अच्छा हुआ
हम तुम्हें अपना समझते थे बड़ा धोखा हुआ
जब भी हम ने कुछ कहा उस का असर उलटा हुआ
आप शायद भूलते हैं बारहा ऐसा हुआ