Friday, October 31, 2008

हम तो बचपन में भी अकेले थे

हम तो बचपन में भी अकेले थे 
सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे 

एक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के 
एक तरफ़ आँसूओं के रेले थे 

थीं सजी हसरतें दूकानों पर 
ज़िन्दगी के अजीब मेले थे 

आज ज़ेहन-ओ-दिल भूखों मरते हैं 
उन दिनों फ़ाके भी हमने झेले थे 

ख़ुदकुशी क्या ग़मों का हल बनती 
मौत के अपने भी सौ झमेले थे 

1 comment:

अनुपम अग्रवाल said...

थीं सजी हसरतें ज़िन्दगी दूकानों पर
और हम दिल की गली में खेले थे
होश आया ,पाया जवानी की तरह
हम तो बचपन में भी अकेले थे