Tuesday, October 28, 2008

हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी

हमारे शौक़ की ये इन्तिहा थी
क़दम रखा कि मंज़िल रास्ता थी

कभी जो ख़्वाब था वो पा लिया है
मगर जो खो गई वो चीज़ क्या थी

मोहब्बत मर गई मुझको भी ग़म है
मेरे अच्छे दिनों की आशना थी

जिसे छू लूँ मैं वो हो जाये सोना
तुझे देखा तो जाना बद्दुआ थी

मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी


शफ़ा=आराम, रोग से मुक्ति

8 comments:

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

बाईस बरसों का जवाँ,छवि मे बाईस दिन.
शौक मुहब्बत का करे,क्या रात क्या दिन.
क्या रात क्या दिन,रटन बस एक यही है.
मिले प्यार की छाँव, चाह बस एक यही है.
कह साधक कवि, तरसे भारत बरसों-बरसों.
बना रहे गूगल ऐसा ही बाईस बरसों

प्रदीप मानोरिया said...

आपका ब्लॉग जगत में स्वागत है . निरंतरता की चाहत है . मेरे ब्लॉग पर पधारें मेरा आमंत्रण स्वीकारें

Prakash Badal said...

आपका स्वागत है लिखना जारी रखें

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

wah jee wah , aap to sona bana denge. narayan narayan

अभिषेक मिश्र said...

मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
अच्छी लगी कविता आपकी. शुभकामनाएं और स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

रचना गौड़ ’भारती’ said...

सच कहा आपने मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी

रचना गौड़ ’भारती’ said...

मरीज़े-ख़्वाब को तो अब शफ़ा है
मगर दुनिया बड़ी कड़वी दवा थी
शुभकामनाएं और स्वागत मेरे ब्लॉग पर भी.

रचना गौड़ ’भारती’ said...

आपका स्वागत है|